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न घा॒ राजेन्द्र॒ आ द॑भन्नो॒ या नु स्वसा॑रा कृ॒णव॑न्त॒ योनौ॑। आप॑श्चिदस्मै सु॒तुका॑ अवेष॒न्गम॑न्न॒ इन्द्र॑: स॒ख्या वय॑श्च ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

na ghā rājendra ā dabhan no yā nu svasārā kṛṇavanta yonau | āpaś cid asmai sutukā aveṣan gaman na indraḥ sakhyā vayaś ca ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

न। घ॒। राजा॑। इन्द्रः॑। आ। द॒भ॒त्। नः॒। या। नु। स्वसा॑रा। कृ॒णव॑न्त। योनौ॑। आपः॑। चि॒त्। अ॒स्मै॒। सु॒ऽतुकाः॑। अ॒वे॒ष॒न्। गम॑त्। नः॒। इन्द्रः॑। स॒ख्या। वयः॑। च॒ ॥ १.१७८.२

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:178» मन्त्र:2 | अष्टक:2» अध्याय:4» वर्ग:21» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:23» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे (इन्द्रः) परमैश्वर्ययुक्त (राजा) विद्या और विनय से प्रकाशमान राजा (नः) हम लोगों को (न) न (आ, दभत्) मारे न दण्ड देवे वैसे हम लोग (नु) भी उसको (घ) ही मत दुःख देवें, जैसे (या) जो (स्वसारा) दो बहिनियों के समान दो स्त्री (योनौ) घर में बन्धु को मारें वैसे उनके समान हम किसीको न मारें, जैसे विद्वान् जन हिंसा नहीं करते हैं वैसे सब लोग न (कृणवन्त) करें, जैसे (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् (अस्मै) इस सज्जन के लिये (सख्या) मित्रपन के काम (वयः) जीवन (च) और (सुतुकाः) सुन्दर ग्रहण करनेवाली स्त्री (आपः) जलों को (अवेषन्) व्याप्त होती हैं (चित्) उनके समान (नः) हम लोगों को (गमत्) प्राप्त हो वैसे उनको हम भी प्राप्त होवें ॥ २ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे शास्त्रज्ञ धर्मात्मा दयालु विद्वान् किसीको नहीं मारते, वैसे सब आचरण करें ॥ २ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

हे मनुष्या यथा इन्द्रो राजा नोऽस्मान्नादभत्तथा वयं नु तं घ मा हिंसेम। यथा या स्वसारा योनौ बन्धुं न हिंस्यात्तां तथा तद्वद्वयं कञ्चिदपि न हिंस्याम यथा विद्वांसो हिंसां न कुर्वन्ति तथा सर्वे न कृणवन्त यथेन्द्रोऽस्मै सख्या वयश्च सुतुका आपोऽवेषंश्चिदिव नोऽस्मान् गमत्तथैतं वयमपि प्राप्नुयाम ॥ २ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (न) निषेधे (घ) एव। अत्र ऋचि तुनुघेति दीर्घः। (राजा) विद्याविनयाभ्यां राजमानः (इन्द्रः) परमैश्वर्ययुक्तः (आ) समन्तात् (दभत्) हिंस्यात् (नः) अस्मान् (या) ये (नु) सद्यः (स्वसारा) भगिन्याविव (कृणवन्त) कुरुत (योनौ) गृहे (आपः) जलानि (चित्) इव (अस्मै) (सुतुकाः) सुष्ठु आदात्र्यः (अवेषन्) व्याप्नुवन्ति (गमत्) प्राप्नुयात् (नः) अस्मान् (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् (सख्या) मित्रस्य कर्म्माणि (वयः) जीवनम् (च) ॥ २ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथाप्ता दयालवः कञ्चन न हिंसन्ति तथा सर्व आचरन्तु ॥ २ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे शास्त्रज्ञ, धर्मात्मे, दयाळू, विद्वान कुणाचेही हनन करीत नाहीत तसे सर्वांनी आचरण करावे. ॥ २ ॥